Sunday, July 17, 2005

परिचय

jaya nargis
जया नर्गिस
जन्म- 03 दिसम्बर 1962, मुम्बई(महाराष्ट्र)
मातृभाषा- मलयालम
लेखन की भाषा-हिन्दीं एवं उर्दू
शिक्षा- बी.ए.,एम.म्यूज़(गायन एवं वॉयलिन)
प्रकाशित कृतियाँ-
रजनी से रवि तक(काव्य संग्रह)
पग-पग काँटे डग-डग आग ( लेख संग्रह)
नर्गिस (ग़ज़ल-संग्रह)
साईं शक्ति भैरवी (भजन-संग्रह)
कशिश (ग़ज़ल-संग्रह)
नाग (कहानी-संग्रह)
प्रकाशन- देश भर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रकाओं में रचनाओं का प्रकाशन एवं आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा ग़ज़लों का प्रसारण। अनेक कहानियों और लघु कथाओं का कई भाषाओं में अनुवाद।
संप्रति- होशंगाबाद में भैरवी संगीत, साहित्य कला मंदिर का संचालन।
संपर्क-
राधावल्लभ मंदिर
सुभाष चौक, नर्मदा मार्ग
होशंगाबाद(म.प्र.)-461001
दूरभाष- 9893087788
***

ग़ज़लें

[1]
हैं अँधेरे लाख लेकिन इक जलता तो है
तू नहीं है साथ, यादों का तेरी साया तो है

कह रहा है मुसकुरा के मुझसे मेरा आईना
इस पराए शहर में कोई तेरा अपना तो है

आज मायूसी को मेरी कुछ क़रार आ ही गया
कोरा काग़ज़ ही सही पर उसने ख़त भेजा तो है

पूछता है दूसरों से हाल मेरा बारहा
हो उसे इन्कार लेकिन वास्ता रखता तो है

वो नहीं मैं, जो सफ़र की मुश्किलों से जाए डर
मंज़िलें मेरी नहीं तो क्या, मेरा रस्ता तो है

कौन कहता है ज़माने का लहू ठंडा हुआ
हादसा 'नर्गिस' यहाँ हर रोज़ इक होता तो है
***

[2]
एक खिलौनेवाला ये कहता फिरता है गलियों में
मोल जो इनका समझे वो बच्चा रहता है गलियों में

छोटी बस्ती में रहने के लुत्फ़ ये शहरी क्या जाने
राम-राम कर लेता है जो भी मिलता है गलियों में

रंगो-बू सब क़ैद हुए महलों के सुनहरी गमलों में
बाँह पसारे मिलता है जो गुल खिलता है गलियों में

इस्कूलों को जानेवाले बच्चे देख के याद आया
जीवन का हर सख्त़ सबक़ बचपन पढ़ता है गलियों में

मेरे गाँव के सीधे-सच्चे लोग ग़मों से कैसे डरें
एक फ़कीर सभी को दुआ देता फिरता है गलियों में

ऊँची-ऊँची उनकी इमारत जगमग-सी हो उठती है
और सूरज का साया तक न ढल पाता है गलियों में

नूरे-तबस्सुम जिसने चुराया उसकी राह में ऐ 'नर्गिस'
इक-इक आँसू दीपक बन झिलमिल करता है गलियों में
***

[3]
आँगन की धूप, नींव का पत्थर चला गया
वो क्या गया, के साथ मिरा घर चला गया

कितने ग़ज़ब की प्यास लिये फिर रहा था वो
जो उसके पीछे-पीछे समंदर चला गया

फिर उसके नाम कर दिया सरकार ने नगर
दुनिया से बदनसीब जो बेघर चला गया

पूछा पता किसी ने तो हमको ख़बर हुई
बरसों कोई पड़ौस में रहकर चला गया

दिल पारा-पारा होके गया जाने कब बिखर
इस तर्हा कोई आँख मिलाकर चला गया

सूरत से वास्ता यहाँ फ़ितरत को क्या भला
बुत बर्फ़ का था, आग लगाकर चला गया

'नर्गिस' न ख़ुद मुझे ही ख़बर हो सकी कभी
वो शख्स़ियत को मेरी मिटाकर चला गया
***

[4]
एक सच बोलने की देरी है
फिर ये दुनिया तमाम तेरी है

चंद वादे हैं, उनकी यादे हैं
हाँ, ये जागीर ही तो मेरी है

हौसलों की शम्मा जब रोशन
फ़िक्र क्या रात ग़र अँधेरी है॓

छँट गया दुशमनी का सब कोहरा
दोस्तों ने जो आँख फेरी है

इक दीवाने ने रेत पर 'नर्गिस'
ज़िंदगी की छवि उकेरी है।
***

[5]
पतझड़ में बहारों की महक अब भी है बाक़ी
बीते हुए लम्हों की कसक अब भी है बाक़ी

दर्पन कभी देखा तो ये अहसास भी जागा
इक ख्व़ाब की आँखों में झलक अब भी है बाक़ी

बस्ती से मेरी जा भी चुके कबके फ़सादी
सन्नाटा मगर दूर तलक अब भी है बाक़ी

ऐ पंछी बचा रखना तू परवाज़ की ख्व़ाहिश
एक तेरी तमन्ना का फ़लक अब भी है बाक़ी

कहने को तो दिल राख का इक ढेर बन गया
इसमें कहीं शोलों की धधक अब भी है बाक़ी

मौसम का फ़ुँसूँ खत्म हुआ शाम से 'नर्गिस'
आँखों में तो अश्कों की धनक अब भी है बाकी
***

[6]
आज हुईं यूँ ख़ुशियाँ घायल
दर्द-सा दिल में पाँव में पायल

जो कड़वा सच किसकी आहट
दिल में मची ये कैसी हलचल

टीस उठी, लो फिर दिल धड़का
फिर लहराया याद का आँचल

बस्तीवाले वहशी क्यूँ हैं
पूछ रहे हैं आज ये जंगल

'नर्गिस' दिल और ग़म की हालत
बीच में नागों के हैं संदल
***

[7]
उसका चेहरा शरद का चाँद लगे
चाँद का अंक उसके बाद लगे

ये जो छोटी-सी ज़िंदगी है मेरी
तुझसे मिलकर ये बेमियाद लगे

जिसकी उम्मीद छोड़ रक्खी थी
तू वो पूरी हुई मुराद लगे

प्यार संगीत में जो ढल जाए
एक-एक साँस ब्रह्म-नाद लगे

ऐ ख़ुश अब ज़बाने-इंसा को
फिर न इंसा के ख़ूँ का स्वाद लगे

ऐसे अशआर सुनाओ 'नर्गिस'
ज़िक्रे-नाशादियाँ भी शाद लगे
***

-जया नर्गिस

कविताएँ

तमाशा

तमाशा जारी है
साँप नेवले को
डस नहीं पाता
नेवला हर-बार छोड़ देता है
साँप को जिंदा
और फिर
मदारी की झोली में
बरसते हैं सिक्के।
चौराहे, गालियाँ, गाँव, शहर
बदलते जाते हैं
डमरू बजता रहता है
भीड़ जुटती रहती है
तमाशा चलता रहता है
सब् जानते हैं
साँप नहीं डसेगा नेवले को
नेवला मार नहीं पाएगा साँप
फिर भी
तमाशबीनों के हाथ
फेंकते रहेंगे सिक्के
अपनी ही मर्जी के ख़िलाफ़।
***


शगल

घिर जाती है लड़की
रात के अँधेरे में
सुबह होने तक बेसाख्त़ा
डराते हैं उसे ख्व़ाबों के खौफनाक चेहरे
टपकता है
टूटकर तारा कोई
और अटक जाता है
लड़की के उलझे बालों में
जिसे वह घबराकर
छुड़ाती है हर दिन
सूरज की पहली किरणों की
कंघी से।
***


भाषा स्पर्श की

आहटों का अर्थ, भाषा स्पर्श की
वो हृदय समझेगा जिसमें प्यार है
सृष्टि का कण-कण बँधा है स्नेह से
स्नेह मत विघटित करो संदेह से
ये तो प्रकृति का अमर उपहार है
यूँ लगेगा जग अगर ना स्नेह हो
रक्त बिन निर्जीव जैसे देह हो
प्यार है बस इसलिए संसार है
विष घृणा का डस न ले जीवन की बेल
स्नेह–रस चख लो हो मन से मन का मेल
प्यार करना स्वंय पे उपकार है
***

गीत मेरे !

गीत मेरे किसी को उदास मत करना
किसी नैन–गागर में नीर मत भरना
दुख अपना तू मन के शीशे में जड़कर
मुस्काना सीख ले ख़ुशी से बिछड़कर
पीड़ा की चाप अधर द्वार मत धरना
संगम हृदय का हृदय से कराने
द्वेष–आँधियों में प्रेम-दीपक जलाने
मरने से भी तू सौ–बार मत डरना
कंठ मौन होगा ये स्वर मौन होगें
एक दिवस जब मेरे अधर मौन होगें
पतझड़ के फूलों सा तू मत बिखरना।
***

-जया नर्गिस

Sunday, May 22, 2005

प्रतिक्रिया

नर्मदातीरे के लिए gg